Shakeel Badayuni Death Anniversary / शकील बदायूंनी: एक गीतकार, जिसने फिल्मों गीतों की तकदीर बदल दी

Ramandeep Kaur
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'मैं शकील दिल का हूं तर्जुमा, मोहŽबतों का हूं राजदां
मुझे फख्र है मेरी शायरी, मेरी जिंदगी से जुदा नहीं।

किसी ने क्या खूब कहा है कि शायर की दास्तान उसकी पैदाईश से शुरू तो जरूर होती है लेकिन उसकी मौत पर जाकर खˆत्म नहीं होती। उसके अशआर व€क्त और जमाने की हदों के पार जाकर उसकी याद को जिंदा रखते हैं। ऐसा कहते हैं शायर पैदा तो होते हैं लेकिन कभी मरते नहीं।

यह दास्तान उस अमर शायर और गीतकार शकील बदायूंनी की है, जिसकी कहानी का आगाज तीन अगस्त 1916 को उˆतर प्रदेश के शहर बदायूं से हुआ था। 20 अप्रैल 1970 को महज 53 साल का सफर पूरा करके मुंबई में उनकी जिंदगी का अंत जरूर हो गया, लेकिन उनके गीत और शायरी दुनियाभर में लोगों की जुबान पर हैं। शकील बदायूंनी के तरानों को लोग आज भी गुनगुना रहे हैं। आखिर ऐसा क्या है उनके नगमों में, जो बरसों बाद भी हम उ‹हें गुनगुना रहे हैं।

जिस गीतकार ने 'आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले, कल तेरी ब’म से दीवाना चला जाएगा... या फिर आज पुरानी राहों से कोई मुझे आवाज न दे, तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा.. जब चली ठंडी हवा, जब से चले गए हैं वो जिंदगी जिंदगी नहीं, कोई  यार की देखे जादूगरी. जैसे मोहŽबत को जिंदगी देने वाले तराने और' अपनी आजादी को हम हर्गिज मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं, या इंसाफ की डगर पे ब‘चों दिखाओ चलके, यह देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के. जैसे देशभक्ति से ओतप्रोत गीत लिखे। उनके गीतों ने मजहबी एकता की भी मिसाल कायम की।

शकील ऐसे गीतकार हैं जिनके गीत हर कोई गुनगुनाता है। ऐसे गीतों को लिखने वाला कलमकार पैंतालीस साल पहले यानी 20 अप्रैल 1970 को दुनिया छोड़कर जा चुका है। वतन को लौटने की कसक रह गई देश और दुनिया ने उ‹हें इतनी जल्दी भुला दिया इसका रंज नहीं लेकिन अजीब बात है कि बदायूं के उस वेदो टोला में उनकी दहलीज पर जमी धूल झाडऩे भी कोई नहीं पहुंचा। बरसों हो चुके उनके बेटा बहू और बेटी दामाद तक नहीं आए। उनके घर की जिस सड़क को उनके एक टेलीफोन पर उžत्तर प्रदेश के गवर्नर ने बनवा दिया था अब उस सड़क पर कोई झाड़ू लगाने भी नहीं आता।

वेदो टोला का वह जर्जर मकान आज भी शकील के लिखे नगमों की कहानी कह रहा है, उनके नगमों में भरा दर्द यहां आकर झलकता दिखता है। शकील जीवन के अंतिम क्ष‡णों में अपने पैतृक गृह बदायूं आने के लिए कई कोशिशें करते रहे लेकिन मौत के आगे उनकी कसक मन में रह गई।

फिल्मी दुनिया में अगर शकील बदायूंनी का नाम न होता तो शायद तमाम चमक दमक के बावजूद यह दुनिया एक अजीब सी कमी से जूझती होती। फिल्मों को उनकी जिंदगी के सिर्फ बीस साल मिले लेकिन यही बीस साल शायद फिल्मी गीतों की जिंदगी में सबसे सुनहरे साल की श€क्ल में हमेशा याद किए जाते रहेंगे। क्योंकि शकील बदायूंनी की कलम से जो गीत लिखे गए, वह आज भी बजते सुनाई देते हैं तो कदम अपनी जगह ठहर से जाते हैं।

शकील को उनके वालिद पढ़ा-लिखाकर एक काबिल अफसर बनाना चाहते थे। इसके लिए बचपन में ही उ‹हें अरबी, फारसी, उर्दू और हिंदी की ट्यूशन भी कराई। वह मेहनत से पढ़ाई करते थे लेकिन दिल से शायर थे। उ‹हें अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में उ‘च शिक्षा के लिए भेजा गया तो वहां पर होने वाले मुशायरों ने उन्हें मंझे हुए शायर में बदल दिया।

दरअसल शकील को शायरी का शौक करीबी रिश्तेदार, उस जमाने के मशहूर शायर जिया उल कादिरी से आया। वह उ‹न्हें ट्यूशन भी पढ़ाते थे उन्हीं की शार्गिदी ने शकील को शायर बना दिया। अलीगढ़ में पढ़ाई पूरी करने के बाद वह 1942 से 46 तक दिल्ली में अफसर रहे, और इस तरह से अपने वालिद का ख्वाब पूरा किया। इस बीच मुशायरा और शायरी से रिश्ता नहीं टूटा।

सन 1946 में एक मुशायरे में शिरकत करने के लिये वो मुंबई गए। उनकी मुलाकात संगीतकार नौशाद से हो गई। नौशाद ने शकील की तारीफ की और निर्माता निर्देशक एआर कारदार से मिलवाया। उ‹होंने जब शकील का लिखा गीत - 'हम दर्द का अफसाना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहŽबत की आग लगा देंगे' सुना तो उस वक्त बन रही फिल्म दर्द में उ‹हें लिखने का ‹न्यौता दे डाला।

बस फिर €या था, मुनव्वर सुलताना, श्याम और सुरैया की अदायगी से सजी इस फिल्म से एक सुरीला अफसाना शुरू हुआ। इस फिल्म सभी गीत हिट हुए।

हिंदी फिल्मों में यह तिकड़ी ऐसी फिट बैठी की जब शकील जीवित रहे इनके आगे कोई टिक नहीं सका। शकील के गीत, नौशाद का संगीत होता था तो आवाज मोहम्मद रफी की। इ‹होंने ऐसे-ऐसे हिट गीत दिए जो आज भी हर इंसान को झकझोर कर रख देते हैं।। इन बीस सालों में शकील बदायूंनी ने 89 फिल्मों को अपने गीतों से सजाया। दीदार, बैजू बावरा, मदर इंडियाए मुगले आजम, गंगा जमुना, मेरे महबूब, चौदहवीं का चांद, साहब बीवी और गुलाम, कितनी फिल्मों का नाम लिया जाए।

उनकी शायरी ने जिस फिल्म को छू दिया वह सुपर हिट हो गयी। उनके हिस्से में भी लगातार तीन फिल्म फेयर अवार्ड आए। वर्ष 1960 में प्रदर्शित 'चौदहवीं का चांद' के चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, वर्ष 1961 में 'घराना' में गीत हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं.. और 1962 में 'बीस साल बाद' में कहीं दीप जले कहीं दिल, गाने के लिये फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

फिल्मी गीतों के अलावा शकील बदायूंनी ने कई गायकों के लिए गजल लिखी हैं जिनमें पंकज उदास प्रमुख रहे हैं। कल रात जिंदगी से मुलाकात हो गई

तेरे बगैर अजब दिल का आलम है
चराग सैकड़ों जलते हैं रोशनी कम है
कफस से आये चमन में तो यही देखा
बहार कहते हैं जिसे खिजां का आलम है।

आज शकील बदायूंनी जैसे अमर शायर की शायरी उसके तरानों को गुनगुनाया जा रहा है। आखिर ऐसा क्या है उनके नग‚मों में, जो बरसों बाद भी हम उ‹हें गुनगुना रहे हैं-

'शकील दिल का हूं तरजुमा, मुहŽबतों का हूं राजदां
मुझे फख्र है मेरी शायरी मेरी जिंदगी से जुदा नहीं।

शकील इतने बड़े और ऊंचे दर्जे के शायर और गीतकार थे कि अगर वो बदायूं की जगह अलीगढ़ या इलाहाबाद में भी पैदा होते तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। हां वो इस दुनिया में नहीं आते तो उनके नग‚मों के बिना ये संसार कितना खाली खाली और फीका होता।

'जिंदगानी खुद हरीफे जिंदगानी हो गई।
मैंने जब रखा कदम दुनिया पुरानी हो गई।
है वही अफसाना लेकिन कहने वाले और हैं।
है वही उ‹न्वां मगर लंबी कहानी हो गयी।

शकील शायरी की दुनिया से फिल्मों में आए थे। यानी फिल्मों में आने से पहले शायरी के आसमान पर वो एक चमकता सितारा बन चुके थे। वो मुशायरों की जान हुआ करते थे । उस दौर में तर€की पसंद शायरी पूरे उफान पर थी। जुल्मतों के खिलाफ आवाज बुलंद की जा रही थी, गरीबों और लाचारों को जगाने के लिये शायरी की जा रही थी। शायरी को क्रांति का बायस माना जा रहा था। ऐसे तूफानी दौर में भी शकील उर्दू शायरी की गहरी रवायत का दामन पकड़े रहे। वो मुहŽबतों के शायर बने रहे, और मुशायरों को लूटते रहे।

'ये फलक फलक हवाएं, ये झुकी झुकी ƒघटायें
वो नजर भी €या नजर है जो ना समझ ले इशारा।
मुझे आ गया यकीं सा कि यही है मेरी मंजिल
सरे राह जब किसी ने मुझे दफ्फतन पुकारा।
कोई आये शकील देखे ये जुनूं नहीं तो €या है
कि उसी के हो गये हम जो ना हो सका हमारा।

शकील की शायरी की यही है मिसाल। मजेदार बात यह है कि शकील बदायूंनी जिस व€त मुशायरों पर हुकूमत कर रहे थे तभी ƒघर-गृहस्थी चलाने के लिये रा’य सरकार के सŒलाई विभाग में काम भी कर रहे थे। कितना अजीब था ना ये तालमेल। एक तरफ सŒलाई विभाग की नौकरी की सूखी और उबाऊ लिखा-पढ़ी। दूसरी तरफ शायरी की नाजुकतरीन दुनिया।

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